नैनीताल :::- कुमाऊं विश्वविद्यालय और संयुक्त राज्य अमेरिका के सबसे पुराने सार्वजनिक विश्वविद्यालयों में से एक जॉर्जिया विश्वविद्यालय के मध्य भारतीय ग्रीष्मकालीन मानसून के व्यवहार के बारे में अध्ययन करने हेतु समझौता ज्ञापन हुआ है। कुमाऊं विश्वविद्यालय के जियोलॉजी विभाग के प्राध्यापक डॉ.राजीव उपाध्याय और जॉर्जिया विश्वविद्यालय के भूगोल विभाग के प्राध्यापक डॉ.डेविड एफ पोरिंजू ने इस समझौते पर हस्ताक्षर किये गये हैं।
नेशनल साइंस फाउंडेशन यूएसए द्वारा प्रायोजित अनुसंधान परियोजना के अंतर्गत दोनों विश्वविद्यालय संयुक्त रूप से भारतीय ग्रीष्मकालीन मानसून के व्यवहार के बारे में अध्ययन करेंगे। सितम्बर के महीने में जॉर्जिया विश्वविद्यालय के भूगोल विभाग के संकाय सदस्य एवं शोध छात्र भारत आएंगे एवं कुमाऊं विश्वविद्यालय के साथ मिलकर जलवायु परिवर्तन के कारण भारतीय ग्रीष्मकालीन मानसून के बदल रहे व्यवहार के बारे में अध्ययन करेंगे। इस सहयोगात्मक कार्य से निकलने वाले सभी प्रकाशन दोनों विश्वविद्यालयों के संयुक्त प्रकाशन होंगे, जिसमें दोनों विश्वविद्यालयों के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए वास्तविक योगदान के अनुसार सहयोगियों को उचित श्रेय दिया जाएगा।
इस सन्दर्भ में प्रो. राजीव उपाध्याय ने बताया कि भारतीय ग्रीष्मकालीन मानसून आमतौर पर जून और सितंबर के बीच होता है। जैसे ही सर्दियाँ ख़त्म होती हैं, दक्षिण-पश्चिम हिंद महासागर से गर्म, नम हवा भारत की ओर बहती है। हिमालय से टकराकर ग्रीष्मकालीन मानसून आर्द्र जलवायु और मूसलाधार वर्षा लाता है। उन्होंने बताया कि भारत और दक्षिण पूर्व एशिया ग्रीष्मकालीन मानसून पर निर्भर हैं। उन्होंने बताया मानसून के अनिश्चित व्यवहार और उसकी अनियमितताओं को हल्के में नहीं लिया जा सकता अतः जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग के कारण मानसून के उदासीन व्यवहार को देखते हुए इसकी गतिकी को समझने के लिए अधिक से अधिक अध्ययन की आवश्यकता है।
इस अवसर पर कुलपति प्रो.दीवान एस. रावत ने कहा कि भारत एक कृषि संचालित अर्थव्यवस्था है एवं खेती की भूमि का एक बड़ा हिस्सा मानसून की बारिश पर निर्भर है। मानसून के पैटर्न में चल रहे बदलावों का किसानों पर बहुत प्रभाव पड़ता है, जो अंततः कृषि उत्पादकता तक जाता है। जलवायु परिवर्तन के कारण भारतीय ग्रीष्मकालीन मानसून का व्यवहार भी बदल रहा है। कुलपति प्रो.रावत ने कहा कि भारत के जलवायु पैटर्न को सुरक्षित और स्थिर बनाने के लिये हमें न केवल घरेलू मोर्चे बल्कि अंतर्राष्ट्रीय मोर्चे पर भी प्रभावी तथा समय पर कदम उठाने की आवश्यकता है, क्योंकि हम एक साझा भविष्य के साथ एक साझा विश्व में रहते हैं। कुमाऊं विश्वविद्यालय और जॉर्जिया विश्वविद्यालय का यह संयुक्त अनुसन्धान कार्य इस सन्दर्भ में मील का पत्थर साबित होगा।